हर साल के हर दिन के लिए एक कविता

अपनी महफ़िल से रिहा होने नहीं देता
मेरा दर्द मुझको तन्हा होने नहीं देता

जो मुझसे हर वक़्त ख़फ़ा सा रहता है
वो मुझको कभी ख़फ़ा होने नहीं देता

मैं उससे जब भी दिल की बोलता हूँ
वो मेरे दिल की ज़रा होने नहीं देता

मैं उसके करीब जाना चाहता हूँ
कभी भी वो ऐसा होने नहीं देता

वो अपनी मजबूरियां कहता कि समझो
मेरी मजबूरियों को बयाँ होने नहीं देता

मैं मुस्कुरा देता हूँ उसकी ख़ता पे तो
उसको लगता है वो ख़ता होने नहीं देता

अगर जानता अपना अंजाम तो कभी भी
मैं उसको अपना खुदा होने नहीं देता

मेरे चिराग इतनी जल्दी दम तोड़ देंगे
जो जानता तो घर में हवा होने नहीं देता….

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