अज़नबी : सच्ची कहानी और जीवन के अनुभवों पर आधारित

भाग 1

मैंने जिंदगी में बहोतो दर्द को जाना, लोगों को जाना, उनके चालाकी, जो हमेशा आपको क्षुब्ध करते हैं. उसका भी कमोबेश अनुभव हैं. अजनबी होना एक आम बात हैं मतलब साधारण सी बात हैं, लेकिन फिर भी कोई भी यहां अजनबी नहीं रहना चाहता. हमारे समाज में रिवायतें इतनी अच्छी हैं कि हम जिस अजनबी से बात तक न करना पसंद करते हैं उससे कितनी आसानी से विवाह कर लेते हैं. जिंदगी का एक महत्वपूर्ण फैसला जो हमेशा हमारे रिश्तेदारों और माता पिता के फैसले से निर्धारित होता हैं. क्या उन्हें कुछ अजीब लगता होगा? या अजीब लगता ही नहीं. अच्छा! जिसने शादी की हैं उसे कैसा लगता होगा कि, कोई अजनबी अब उसके जीवन के हर क्षण का हिस्सा होगा, या शायद वो शादी के पहले दिन से ही अजनबी नहीं रह जाता. कुछ अजीब लगता होगा या सब कुछ वैसा ही रहता होगा, जैसे हम किसी के साथ अजनबीपन को दूर करने के लिए जिंदगी के एक-एक क्षण लंबे समय तक एक दूसरे के साथ गुजार कर रिश्तें मजबूत बनाते हैं. हां! मुझे इसका अनुभव तो नहीं! लेकिन अजनबी से शादी एकदम अजीब हैं, और जिन्हें नहीं लगता वे महान हैं.

मैं बचपन से एक लड़की को जानता हूं मैंने उससे बातें की, उसके साथ पढ़ा समय लंबा बिता हम अच्छे से एक दूसरे से परिचित थे. वो मेरी मित्र सूची में कहीं शामिल तो नहीं हैं लेकिन हां परिचित जरुर थीं अजनबी नहीं! फिर भी शादी के बाद एक रोज अचानक बस स्टैंड पर मुलाकात होती हैं और मैं उसे देख कर खैरियत जनना चहता हूं लेकिन पूछ नहीं पाया. न जाने क्यों? हां मैंने मुस्कुरा दिया लेकिन उसने मुंह फेर लिया. शायद अजनबी बनना उसकी मजबूरी रही हो या जरुरी. ये प्रश्न हो सकता हैं ? लेकिन मैं क्यों अजनबी बना रहा? इसका एक ही जबाब हैं लोक-लाज और रिवायतें. बाकी अब ऐसा बिल्कुल नहीं हैं…

मेरे एक बहुत अच्छे मित्र थे. मतलब यूं समझिए खाते घर पर थें हाथ उनके पास जाकर सुखाते थे. हर छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी, निजी परिवारिक बातें कभी एक दूसरे से शेयर करने में संकोच नहीं करते थे. यूं समझिए कि मेरी जिंदगी में एक बहुत बड़ा हिस्सा था उनका, मुझे हमेशा यकिन था उस इंसान के बिना मैं हमेशा अधूरा रहूंगा. हम दोनों ने ढ़ेर सारी किसमें खाई साथ रहने की , कभी जुदा न होने की, सुख दुःख में हमेशा साथ निभाने का, वगैरह वगैरह…! इन सभी बातों का परिणाम यह हुआ कि उनके घर में एक व्यक्ति सरकारी मुलाजिम हुए. दूख भरे दिन बितों रे भईया! अब सुख आयों! मल्लब! उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी(सुपिरियर) हुई और मेरी आर्थिक स्थिति इंफेरियर की इंफेरियर (जैसी की तैसी) रही. मित्र ने मुझे इग्नोर करना शुरू किया लेकिन मैं पिछे पड़ा रहा दो तीन वर्ष बाद मुझे ज्ञात हुआ कि मैं तो अब मित्र रहा ही नहीं. मतलब चापलूस टाइप फिलिंग आने लगी रोज रोज उसकी प्रशंसा से थक चूका था, मैं उसे कहना चाहता था कि तुम स्वर्थी और घटिया किस्म के इंसान हो लेकिन कभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया. वो लगातार मुझ से अजनबी सा व्यवहार करता रहा लेकिन मैं समझ नहीं पाता. फिर एक रोज समझा और मैं खूब रोया लेकिन उससे किसी को घंटा फर्क पड़ा, घूटन सी होने लगी. खुद से नफरत हो गई, घिन्न आने लगा अपने आप से, मैंने खुद को ठगा था, सवाल जो मैं खुद से पूछता लेकिन जबाब नहीं था मेरे पास, शायद मैं अपनी बेबकुफी को पचा नहीं पा रहा था कि कोई ऐसा कैसे कर सकता हैं. सच यह था कि मैं यूज एंड थ्रो था. तब जबाब ढूढ़ा लेकिन मोह माया ने ज्ञान के सारे दरबाजे बंद कर रखे थे. खैर! वक्त ने मेरे दर्द को भर दिया. लंबे समय बाद वो मेरे सामने था और मैं मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गया उसे टोका नहीं, एक क्षण में मैंने उसे अजनबी बना दिया. उस इंसान के चेहरे फोटो खींचने लायक थीं…! पता नहीं क्यों ? मुझे खुश देख वो अपनी चालाकी सेलिब्रेट नहीं कर पा रहा था. खैर जो हुआ सो हुआ…
अब शायद कोई फर्क नहीं पड़ता किसी के साथ होने या न होने से…!
जारी हैं…

अगला अंक अगले रविवार को.

आपको कैसा लगा प्रतिक्रिया जरुर दिजिएगा…

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